पंडवानी की गायन शैली
पंडवानी छत्तीसगढ़ के विशिष्ट लोकगायन विधा है जिसमें जो लोकनाट्य का स्वरूप भी दिया गया हैं पंडवानी की विषय वस्तु रतनपुर के सबलसिंह चैहान लिखित महाभारत पर आधारित है। इसका नायक भीम है। इसीलिए इसकी दो प्रमुख शाखा एवं उपशाखाएं विकसित हो गई है। इनका वर्णन यहीं समीचीन होगा -
(क) वेदमती शाखा:
पंडवानी एक प्रमुख गायक होता है। एक हुंकार भरने वाला गायक होता है। कुछ वाद्य पर संगत करने वाले लोग रहते हैं। साधारणतः तबला, ढोलक, हारमोनियम, बैंजो, मंजीरा और करताल से संगत की जाती है। गायक स्वयं तंबूरा और और करताल बजाता है। यह वेदमती शाखा का गायन हैं इस शाखा के पंडवानी कथागायक शास्त्रसम्मत करते हैं। ये महाभारत के अनुसार गायकी करते हैं और स्वयं को पंडवानी-गायन का मापदंड मानते हैं। ये लोग अपने को पंडवानी-गायक के स्थान पर महाभारत-गायक कहते हैं।
इस शाखा के गायकों का अभ्युदय कापालिक शाखा की परंपरागत दंतकथाओं पर आधारित पंडवानी गायन के विरोधस्वरूप हुआ। इन लोगों ने लोकरूचि और समयगत स्वीकृत वाद्यों का प्रयोग गायन के साथ किया। महाभारत की कथा को छत्तीसगढ़ के लोकगीत की धुनों में बांधा।
कापालिक शाखा की पंडवानी मात्र कथागायन है, वहीं वेदमती शाखा की पंडवानी गायन के साथ नृत्य-नाट्य भी हैं वेदमती शाखा के गायन में पंडवानी मुख्यतया तीन गायन-शैलियों में देखी जा सकती हैं पहले स्तर का नाट्य, दूसरे स्तर से उठता हुआ नाट्य और तीसरे स्तर पर विस्तार करता हुआ नाट्य। पहले में गायक घुटनों के बल बैठकर तंबूरा से समस्त अभिनय-कार्य संपादित करता है। दूसरे में गायक खड़े होकर गाते हुए अभिनय करता है। तीसरे में गायक खड़े होकर अभिनय करता है। जिसमें रागी एक पात्र के रूप में पंडवानी गायक के समय दिखाइ्र देता हैं रागी दो काम करता हैं प्रथम, हुंकारी भरता है, दूसरे गायक की कड़ियों को केवल दोहराता हैं तीसरे प्रकार के गायक-अभिनय में रागी एक अतिरिक्त काम भी करता है। वह तत्कालीन कथा को समकालीन बनाता हुआ तथा उसे जोड़ता हुआ चलता है। इसके लिए वह कथानुसार समकालीन प्रश्न पूछता है। मुख्य गायक उसके प्रश्नों को सुनकर तत्कालीन देशकाल बतलाता हैं और रागी समकालीन देशकाल की बात करते, जोड्रते तत्कालीन कथारूप में तत्काल जोड़ता हैं इस प्रकार कथा फिर से आगे बढ़ती है।
वास्तव में ये तीनों गायन-प्रकार पंडवानी की वेदमती शाखा का क्रमिक और स्वाभाविक विकास हैं विकास की यह प्रक्रिया लगभग एक साथ कुछ अंतराल मे ही घटित हुई। इस प्रकार के गायन-अभिनय के श्रेष्ठ कलाकार झांडुराम देवांगन हैं। दूसरे तरह के के गायन में घुटनों के बल की पंडवानी पैरों के बल खड़ी होती है। वह अपने कदमांे से चलती-फिरती हैं, नृत्य करती है और कथा-अभिनय के दौरान थमकती है। यहां पर भाव और अभिनय का प्रथम रूप नहीं है। यहां भाव और अभिनय के स्थान पर व्याख्या पहले से अधिक सक्षम रूप में सामने आती हैं संगीत की परिपाटी वही हैं इस प्रकार की उत्कृष्ट गायिका तीजनबाई हैं।
तीसरे प्रकार की पंडवानी में संवाद प्रमुख रूप से सामने आता है। भावाभिनय कम होता है। गायन पक्ष कमजोर हो जाता है। भावों के मूर्तन का लोप हो जाता है। पंडवानी की विकास-यात्रा का यह अंतिम पड़ाव है। रागी बहुत कुछ छत्तीसगढ़ी माचा के जोकर-जैसा व्यवहार करता है। इस प्रकार की पंडवानी के श्रेष्ठ गायक रेवाराम गंजीर हैं।छत्तीसगढ़ में वेदमती शैली के तीन स्वरूप हैं:
1. बैठा हुआ नाट्य शैली - इसमें गायक घुटनों के बल बैठकर तंबूरा द्वारा अभिनय करता है। झाडूराम देवांगन इस शैली के श्रेष्ठतम कलाकार हैं।
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| Teejan Bai |
3. उठता हुआ नाट्य शैली- इसमें गायक खड़े होकर या चलते फिरते हुए कथा प्रस्तुत करता है। इस विधा के श्रेष्ठतम कलाकार तीजन बाई हैं।
(ख) कापालिक शाखा:
पंडवानी की यह पारंपरिक शाखा है, जिसे परधान व देवार गायक पालथी मारकर गाते हैं। ये गायन और वादन स्वयं करते हैं। अपने वाद्योें के कारण इनमें भी शखाएं हैं। सारंगिया देवार सारंगी, ढुगरू देवार ढुगरू बजाते हैं। पठारी परधान गायक किंकणी या बाना नामक वाद्य के साथ गाता है। गोगिया परधान किंड्डिग बजाता है। इस शाखा में मात्र संगीत और कथा महत्वपूर्ण है। संगीत की स्वर लहरियां पंडवानी की संश्लिष्ट कथा व मिथकों के घटाटोप को खोलती हैं।आजकल कापालिक शाखा के बहुत कम गायक ऐसे हैं, जो पंडवानी को पूरी तरह गा सकते हैं। पंडवानी का यह रूप अपने संगीत के वैभव के साथ समाप्ति के कगार पर है।
| Ritu Verma |
1. सारंगिया देवा
2. दूगारू देवा
झाडूराम देवांगन को पंडवानी गुरू के नाम से जाना जाता है, जबकि तीजनबाई को पद्यमभूषण ओर पद्यश्री सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।


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ReplyDeleteinformative post
Thank you to provide us informative and knowledgeable post
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